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तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं | शाही शायरी
tamam bhiD se aage nikal ke dekhte hain

ग़ज़ल

तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं

अहमद कमाल परवाज़ी

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तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं
तमाश-बीन वो चेहरा उछल के देखते हैं

नज़ाकतों का ये आलम कि रू-नुमाई की रस्म
गुलाब बाग़ से बाहर निकल के देखते हैं

तू ला-जवाब है सब इत्तिफ़ाक़ रखते हैं
मगर ये शहर के फ़ानूस जल के देखते हैं

इसे मैं अपने शबिस्ताँ में छू के देखता हूँ
वो चाँद जिस को समुंदर उछल के देखते हैं

जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
कभी कभी उसे आँसू निकल के देखते हैं

जो रोज़ दामन-ए-सद-चाक सीते रहते हैं
तुम्हें वो ईद पे कपड़े बदल के देखते हैं