EN اردو
शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया | शाही शायरी
sham ke baad sitaron ko sambhalne na diya

ग़ज़ल

शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया

अहमद कमाल परवाज़ी

;

शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया
रात को रोक लिया चाँद को ढलने न दिया

मौज-ए-बातिन कभी औक़ात से बाहर न गई
हद के अंदर भी किसी शय को मचलने न दिया

आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
होश-मंदी से किसी चीज़ को जलने न दिया

अब के मुख़्तार ने मुहताज की दीवार का क़द
जितना मामूल है उतना भी निकलने न दिया

जिन बुज़ुर्गों की विरासत के अमीं हैं हम लोग
उन की क़ब्रों ने कभी शहर बदलने न दिया