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बराए-ज़ेब उस को गौहर-ओ-अख़्तर नहीं लगता | शाही शायरी
barae-zeb usko gauhar-o-aKHtar nahin lagta

ग़ज़ल

बराए-ज़ेब उस को गौहर-ओ-अख़्तर नहीं लगता

अहमद कमाल परवाज़ी

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बराए-ज़ेब उस को गौहर-ओ-अख़्तर नहीं लगता
वो ख़ुद इक चाँद है और चाँद को ज़ेवर नहीं लगता

ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
वही इक ऐसा क़ातिल है जो पेशा-वर नहीं लगता

अगर आरिज़-परस्ती का अमल इक जुर्म बनता है
सज़ा भी काट लेंगे काटने से डर नहीं लगता

मोहब्बत तीर है और तीर बातिन छेद देता है
मगर निय्यत ग़लत हो तो निशाने पर नहीं लगता

रईस-ए-शहर हो कर भी वो इतना झुक के मिलता है
कि उस के सामने कोई भी क़द-आवर नहीं लगता