मर्ज़ी ख़ुदा की क्या है कोई जानता नहीं
क्या चाहती है ख़ल्क़-ए-ख़ुदा हम से पूछिए
अबु मोहम्मद सहर
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फिर खुले इब्तिदा-ए-इश्क़ के बाब
उस ने फिर मुस्कुरा के देख लिया
अबु मोहम्मद सहर
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रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा भी कूचा-ओ-बाज़ार हो जैसे
कभी जो हो नहीं पाता वो सौदा याद आता है
अबु मोहम्मद सहर
'सहर' अब होगा मेरा ज़िक्र भी रौशन-दिमाग़ों में
मोहब्बत नाम की इक रस्म-ए-बेजा छोड़ दी मैं ने
अबु मोहम्मद सहर
तकमील-ए-आरज़ू से भी होता है ग़म कभी
ऐसी दुआ न माँग जिसे बद-दुआ कहें
अबु मोहम्मद सहर