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उमैर मंज़र शायरी | शाही शायरी

उमैर मंज़र शेर

9 शेर

बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया

उमैर मंज़र




हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
मैं रस्म-ए-ज़िंदगी जो निभाने में रह गया

उमैर मंज़र




इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ऐब ओ हुनर का सारा पर्दा चाक हुआ

उमैर मंज़र




साथी मिरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया

उमैर मंज़र




सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
मगर टूटी हुई कश्ती में दरिया पार होना था

उमैर मंज़र




तज़्किरा हो तिरा ज़माने में
ऐसा पहलू कोई बयान में रख

उमैर मंज़र




यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
कि इस दुनिया से आख़िर एक दिन बे-ज़ार होना था

उमैर मंज़र




ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
मैं अपनी वहशत के मक़बरे से नई तमन्ना के ख़्वाब देखूँ

उमैर मंज़र




ये तो सच है कि वो सितमगर है
दर पर आया है तो अमान में रख

उमैर मंज़र