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कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था | शाही शायरी
kabhi iqrar hona tha kabhi inkar hona tha

ग़ज़ल

कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था

उमैर मंज़र

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कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
उसे किस किस तरह से दर-पए आज़ार होना था

सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
मगर टूटी हुई कश्ती में दरिया पार होना था

सदा-ए-अल-अमाँ दीवार-ए-गिर्या से पलट आई
मुक़द्दर कूफ़ा ओ काबुल का जो मिस्मार होना था

मुक़द्दर के नविश्ते में जो लिक्खा है वही होगा
ये मत सोचो कि किस पर किस तरह से वार होना था

यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
कि इस दुनिया से आख़िर एक दिन बे-ज़ार होना था