जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
सारा आलम उस की नज़र में ख़ाक हुआ
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ऐब ओ हुनर का सारा पर्दा चाक हुआ
उस की गली से शायद हो कर आया है
बाद-ए-सबा का झोंका जो सफ़्फ़ाक हुआ
ज़ब्त-ए-मोहब्बत की पाबंदी ख़त्म हुई
शौक़-ए-बदन का सारा क़िस्सा पाक हुआ
उस बस्ती से अपना रिश्ता-ए-जाँ 'मंज़र'
आते जाते मौसम की पोशाक हुआ
ग़ज़ल
जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
उमैर मंज़र