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जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ | शाही शायरी
jab insan ko apna kuchh idrak hua

ग़ज़ल

जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ

उमैर मंज़र

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जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
सारा आलम उस की नज़र में ख़ाक हुआ

इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ऐब ओ हुनर का सारा पर्दा चाक हुआ

उस की गली से शायद हो कर आया है
बाद-ए-सबा का झोंका जो सफ़्फ़ाक हुआ

ज़ब्त-ए-मोहब्बत की पाबंदी ख़त्म हुई
शौक़-ए-बदन का सारा क़िस्सा पाक हुआ

उस बस्ती से अपना रिश्ता-ए-जाँ 'मंज़र'
आते जाते मौसम की पोशाक हुआ