हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
मैं रस्म-ए-ज़िंदगी जो निभाने में रह गया
आता है मेरी सम्त ग़मों का नया हुजूम
अल्लाह मैं ये कैसे ज़माने में रह गया
वो मौसम-ए-बहार में आ कर चले गए
फूलों के मैं चराग़ जलाने में रह गया
साथी मिरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया
दार ओ रसन सजाए गए जिस के वास्ते
इक ऐसा शख़्स मेरे ज़माने में रह गया
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया
ग़ज़ल
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
उमैर मंज़र