एक बेचैन समुंदर है मिरे जिस्म में क़ैद 
टूट जाए जो ये दीवार तो मंज़र देखूँ
सिद्दीक़ मुजीबी
हमारे नाम लिखी जा चुकी थी रुस्वाई 
हमें तो होना था यूँ भी ख़राब चारों तरफ़
सिद्दीक़ मुजीबी
इक लहू की बूँद थी लेकिन कई आँखों में थी 
एक हर्फ़-ए-मो'तबर था और कई मानों में था
सिद्दीक़ मुजीबी
ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन 
ये भी हिम्मत नहीं अब झाँक के अंदर देखूँ
सिद्दीक़ मुजीबी
मैं ने हँसने की अज़िय्यत झेल ली रोया नहीं 
ये सलीक़ा भी कोई आसान जीने का न था
सिद्दीक़ मुजीबी
मैं वो टूटा हुआ तारा जिसे महफ़िल न रास आई 
मैं वो शोला जो शब भर आँख के पानी में रहता है
सिद्दीक़ मुजीबी
नाख़ुदा हो कि ख़ुदा देखते रह जाते हैं 
कश्तियाँ डूबती हैं उस के मकीं डूबते हैं
सिद्दीक़ मुजीबी
उठे हैं हाथ तो अपने करम की लाज बचा 
वगरना मेरी दुआ क्या मिरी तलब क्या है
सिद्दीक़ मुजीबी

