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आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था | शाही शायरी
aarzu jine ki thi imkan jine ka na tha

ग़ज़ल

आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था

सिद्दीक़ मुजीबी

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आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
ख़्वाहिशें थीं सफ़-ब-सफ़ सामान जीने का न था

क़र्ज़ था तेरा सो जीते-जी तुझे लौटा दिया
ज़िंदगी वर्ना मुझे अरमान जीने का न था

दोस्ती ज़हराब से की रंज-ओ-ग़म से की निबाह
वर्ना ये माहौल मेरी जान जीने का न था

ज़िंदगी तू छोड़ मेरा साथ मैं बे-ज़ार हूँ
मेरा तेरा तो कोई पैमान जीने का न था

मैं ने हँसने की अज़िय्यत झेल ली रोया नहीं
ये सलीक़ा भी कोई आसान जीने का न था

कुछ तिरी रहमत पे तकिया कुछ गुनाहों की कशिश
वर्ना उस दुनिया में तो इंसान जीने का न था

ज़ेहन की आवारगी मिन्नत-कश-ए-दुनिया न थी
ज़िंदगी का भी 'मुजीबी' ध्यान जीने का न था