अजब पागल है दिल कार-ए-जहाँ बानी में रहता है
ख़ुदा जब देखता है ख़ुद भी हैरानी में रहता है
मैं वो टूटा हुआ तारा जिसे महफ़िल न रास आई
मैं वो शोला जो शब भर आँख के पानी में रहता है
कोई ऐसा नहीं मिलता जो मुझ में डूब कर देखे
मिरे ग़म को जो मेरे दिल की वीरानी में रहता है
हज़ारों बिजलियाँ टूटीं नशेमन भी जला लेकिन
कोई तो है जो इस घर की निगहबानी में रहता है
ख़ुदा और नाख़ुदा दोनों ख़जिल हैं हाल पर मेरे
मैं वो तिनका हूँ जो आग़ोश-ए-तुग़्यानी में रहता है
रुमूज़-ए-मुम्लिकत या रब ख़िरद समझे या तू जाने
जुनूँ मेरा तो शौक़-ए-चाक-दामानी में रहता है
ग़ज़ल लिखने से क्या होगा 'मुजीबी' कुछ क़सीदे लिख
शरफ़ सुनते हैं अब तर्ज़-ए-सना-ख़्वानी में रहता है
ग़ज़ल
अजब पागल है दिल कार-ए-जहाँ बानी में रहता है
सिद्दीक़ मुजीबी