कल तो इस आलम-ए-हस्ती से गुज़र जाना है
आज की रात तिरी बज़्म में हम और सही
साहिर लखनवी
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क्यूँ मेरी तरह रातों को रहता है परेशाँ
ऐ चाँद बता किस से तिरी आँख लड़ी है
साहिर लखनवी
मंज़िलें पाँव पकड़ती हैं ठहरने के लिए
शौक़ कहता है कि दो चार क़दम और सही
साहिर लखनवी
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