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नज़्म तबा-तबाई शायरी | शाही शायरी

नज़्म तबा-तबाई शेर

19 शेर

अपनी दुनिया तो बना ली थी रिया-कारों ने
मिल गया ख़ुल्द भी अल्लाह को फुसलाने से

नज़्म तबा-तबाई




असीरी में बहार आई है फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ कर लें
नफ़स को ख़ूँ-फ़िशाँ कर लें क़फ़स को बोस्ताँ कर लें

नज़्म तबा-तबाई




बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की
सुना है रूह को आना है फिर बदन की तरफ़

नज़्म तबा-तबाई




दर्द-ए-दिल से इश्क़ के बे-पर्दगी होती नहीं
इक चमक उठती है लेकिन रौशनी होती नहीं

नज़्म तबा-तबाई




दिल इस तरह हवा-ए-मोहब्बत में जल गया
भड़की कहीं न आग न उट्ठा धुआँ कहीं

नज़्म तबा-तबाई




जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से
न मैं हूँ शैख़ की जानिब न बरहमन की तरफ़

नज़्म तबा-तबाई




काबा ओ बुत-ख़ाना आरिफ़ की नज़र से देखिए
ख़्वाब दोनों एक ही हैं फ़र्क़ है ताबीर में

नज़्म तबा-तबाई




किया है उस ने हर इक से विसाल का वादा
इस इश्तियाक़ में मरना ज़रूरी होता है

नज़्म तबा-तबाई




लोटते रहते हैं मुझ पर चाहने वालों के दिल
वर्ना यूँ पोशाक तेरी मल्गजी होती नहीं

नज़्म तबा-तबाई