नशा में सूझती है मुझे दूर दूर की
नद्दी वो सामने है शराब-ए-तुहूर की
नज़्म तबा-तबाई
अपनी दुनिया तो बना ली थी रिया-कारों ने
मिल गया ख़ुल्द भी अल्लाह को फुसलाने से
नज़्म तबा-तबाई
लोटते रहते हैं मुझ पर चाहने वालों के दिल
वर्ना यूँ पोशाक तेरी मल्गजी होती नहीं
नज़्म तबा-तबाई
किया है उस ने हर इक से विसाल का वादा
इस इश्तियाक़ में मरना ज़रूरी होता है
नज़्म तबा-तबाई
काबा ओ बुत-ख़ाना आरिफ़ की नज़र से देखिए
ख़्वाब दोनों एक ही हैं फ़र्क़ है ताबीर में
नज़्म तबा-तबाई
जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से
न मैं हूँ शैख़ की जानिब न बरहमन की तरफ़
नज़्म तबा-तबाई
दिल इस तरह हवा-ए-मोहब्बत में जल गया
भड़की कहीं न आग न उट्ठा धुआँ कहीं
नज़्म तबा-तबाई
दर्द-ए-दिल से इश्क़ के बे-पर्दगी होती नहीं
इक चमक उठती है लेकिन रौशनी होती नहीं
नज़्म तबा-तबाई
बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की
सुना है रूह को आना है फिर बदन की तरफ़
नज़्म तबा-तबाई