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मिर्ज़ा मायल देहलवी शायरी | शाही शायरी

मिर्ज़ा मायल देहलवी शेर

12 शेर

अज़मत-ए-कअबा मुसल्लम है मगर बुत-कदा में
एक आराम ये कैसा है कि कुछ दूर नहीं

मिर्ज़ा मायल देहलवी




दिल क्या निगाह-ए-मस्त से मय-ख़ाना बन गया
मज़मून-ए-आशिक़ाना भी रिंदाना बन गया

मिर्ज़ा मायल देहलवी




ईमान जाए या रहे जो हो बला से हो
अब तो नज़र में वो बुत-ए-काफ़िर समा गया

मिर्ज़ा मायल देहलवी




इश्क़ भी क्या चीज़ है सहल भी दुश्वार है
उन को इधर देखना मुझ को उधर देखना

मिर्ज़ा मायल देहलवी




माइल को जानते भी हो हज़रत हैं एक रिंद
क्या ए'तिबार आप के रोज़े नमाज़ का

मिर्ज़ा मायल देहलवी




मानें जो मेरी बात मुरीदान-ए-बे-रिया
दें शैख़ को कफ़न तो डुबो कर शराब में

मिर्ज़ा मायल देहलवी




मिलें किसी से तो बद-नाम हों ज़माने में
अभी गए हैं वो मुझ को सुना के पर्दे में

मिर्ज़ा मायल देहलवी




मुझे काफ़िर ही बताता है ये वाइज़ कम-बख़्त
मैं ने बंदों में कई बार ख़ुदा को देखा

मिर्ज़ा मायल देहलवी




न काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया न बुत-ख़ाना
लड़ाना ख़ूब आता है तुम्हें शैख़ ओ बरहमन को

मिर्ज़ा मायल देहलवी