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अश्क-ए-गुलगूँ को न ख़ून-ए-शोहदा को देखा | शाही शायरी
ashk-e-gulgun ko na KHun-e-shohada ko dekha

ग़ज़ल

अश्क-ए-गुलगूँ को न ख़ून-ए-शोहदा को देखा

मिर्ज़ा मायल देहलवी

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अश्क-ए-गुलगूँ को न ख़ून-ए-शोहदा को देखा
शोख़ जैसा कि तिरे रंग-ए-हिना को देखा

तुझ को देखा न तिरे नाज़-ओ-अदा को देखा
तेरी हर तर्ज़ में इक शान-ए-ख़ुदा को देखा

हैं तुझे देख के हूरान-ए-बहिश्ती बेताब
या तिरे कुश्ता-ए-अंदाज़ा-ओ-अदा को देखा

तिश्ना-ए-आब-ए-दम-ए-तेग़ ने पीना कैसा
आँख उठा कर न कभी आब-ए-बक़ा को देखा

मुझे काफ़िर ही बताना है ये वाइज़ कम-बख़्त
मैं ने बंदों में कई बार ख़ुदा को देखा

निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-मोअम्बर को चमन में पाया
आते जाते तिरे कूचे में सबा को देखा

'माइल' ईमान है बिल-ग़ैब हमें लोगों का
कि पयम्बर को है देखा न ख़ुदा को देखा