दश्त-ए-जुनूँ से आ गए शहर-ए-ख़िरद में हम
दिल को मगर ये सानेहा अच्छा नहीं लगा
ख़ालिद मुबश्शिर
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कहीं राँझा, कहीं मजनूँ हुआ
वजूद-ए-इश्क़ आलमगीर है
ख़ालिद मुबश्शिर
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मिरी वहशतों का सबब कौन समझे
कि मैं गुम-शुदा क़ाफ़िला चाहता हूँ
ख़ालिद मुबश्शिर
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मुझे शक है होने न होने पे 'ख़ालिद'
अगर हूँ तो अपना पता चाहता हूँ
ख़ालिद मुबश्शिर
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टपक के दीदा-ए-नम से सदाएँ देता है
जो एक हर्फ़-ए-तमन्ना दिल-ए-तबाह में था
ख़ालिद मुबश्शिर
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