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ग़रीक़-ए-ज़िक्र-ए-ख़ुदा दिन को ख़ानक़ाह में था | शाही शायरी
ghariq-e-zikr-e-KHuda din ko KHanqah mein tha

ग़ज़ल

ग़रीक़-ए-ज़िक्र-ए-ख़ुदा दिन को ख़ानक़ाह में था

ख़ालिद मुबश्शिर

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ग़रीक़-ए-ज़िक्र-ए-ख़ुदा दिन को ख़ानक़ाह में था
जो शैख़ रात को डूबा हुआ गुनाह में था

तमाम संग-दिली या कि फिर ग़ुरूर-ओ-हशम
कुछ और इस के सिवा भी जहाँ-पनाह में था

हुरूफ़-ए-मक्र तिरे लब पे थे मगर ज़ालिम
मुझे फ़रेब भी खाना वफ़ा की राह में था

तुम्हारे क़ौल-ओ-क़सम पर फ़रेब क्या खाता
तुम्हारा तर्ज़-ए-अदा भी मिरी निगाह में था

टपक के दीदा-ए-नम से सदाएँ देता है
जो एक हर्फ़-ए-तमन्ना दिल-ए-तबाह में था

मुझे तो रास ऐ 'ख़ालिद' यही ज़मीं आई
ये और बात मिरा ज़िक्र महर-ओ-माह में था