ग़रीक़-ए-ज़िक्र-ए-ख़ुदा दिन को ख़ानक़ाह में था
जो शैख़ रात को डूबा हुआ गुनाह में था
तमाम संग-दिली या कि फिर ग़ुरूर-ओ-हशम
कुछ और इस के सिवा भी जहाँ-पनाह में था
हुरूफ़-ए-मक्र तिरे लब पे थे मगर ज़ालिम
मुझे फ़रेब भी खाना वफ़ा की राह में था
तुम्हारे क़ौल-ओ-क़सम पर फ़रेब क्या खाता
तुम्हारा तर्ज़-ए-अदा भी मिरी निगाह में था
टपक के दीदा-ए-नम से सदाएँ देता है
जो एक हर्फ़-ए-तमन्ना दिल-ए-तबाह में था
मुझे तो रास ऐ 'ख़ालिद' यही ज़मीं आई
ये और बात मिरा ज़िक्र महर-ओ-माह में था

ग़ज़ल
ग़रीक़-ए-ज़िक्र-ए-ख़ुदा दिन को ख़ानक़ाह में था
ख़ालिद मुबश्शिर