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ज़ख़्मों का एक सिलसिला अच्छा नहीं लगा | शाही शायरी
zaKHmon ka ek silsila achchha nahin laga

ग़ज़ल

ज़ख़्मों का एक सिलसिला अच्छा नहीं लगा

ख़ालिद मुबश्शिर

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ज़ख़्मों का एक सिलसिला अच्छा नहीं लगा
जर्राह को ये तजरबा अच्छा नहीं लगा

उस ने किया सलाम तो अच्छा लगा मगर
बस ये कि मुँह का ज़ाविया अच्छा नहीं लगा

मेरे जुनूँ को वस्ल की क़ुर्बत निगल गई
फ़ुर्क़त से इतना फ़ासला अच्छा नहीं लगा

तुम ने जो मत्न पेश किया मुस्तनद तो था
लेकिन तुम्हारा हाशिया अच्छा नहीं लगा

आईना-गर के हाथ में पत्थर हैं किस लिए
''शायद उन्हें भी आइना अच्छा नहीं लगा''

दश्त-ए-जुनूँ से आ गए शहर-ए-ख़िरद में हम
दिल को मगर ये सानेहा अच्छा नहीं लगा

'ख़ालिद' सुना जो रूह का नग़्मा तो फिर कभी
बुलबुल को कोई ज़मज़मा अच्छा नहीं लगा