अब तो हर वक़्त वही इतना रुलाता है मुझे
जिस को जाते हुए मैं देख के रो भी न सका
कामिल अख़्तर
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अक्सर इसी ख़याल ने मायूस कर दिया
शायद तमाम उम्र यूँ ही काटनी पड़े
कामिल अख़्तर
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लम्हों के तार खींचता रहता था रात दिन
इक शख़्स ले गया मिरी सदियाँ समेट के
कामिल अख़्तर
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मंज़रों की भीड़ ऐसी तो कभी देखी न थी
गाँव अच्छा था मगर उस में कोई लड़की न थी
कामिल अख़्तर
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रुतों के रंग बदलते हुए भी बंजर है
वो एक ख़ास इलाक़ा जो दिल के अंदर है
कामिल अख़्तर
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उम्र भर याद रहा अपनी वफ़ाओं की तरह
एक वो अहद जिसे आप ने पूरा न किया
कामिल अख़्तर
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