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रुतों के रंग बदलते हुए भी बंजर है | शाही शायरी
ruton ke rang badalte hue bhi banjar hai

ग़ज़ल

रुतों के रंग बदलते हुए भी बंजर है

कामिल अख़्तर

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रुतों के रंग बदलते हुए भी बंजर है
वो एक ख़ास इलाक़ा जो दिल के अंदर है

घड़ी घड़ी मिरी आँखों में उड़ रही है धूल
सदी सदी का मिरी राह में समुंदर है

बुझा बुझा हुआ रहता हूँ अपने ख़्वाबों में
धुआँ धुआँ सा मिरे जागने का मंज़र है

अजीब ख़्वाब सा देखा कि पूरे दरिया में
कोई जहाज़ कहीं है न कोई लंगर है

बदन पे टूट बिखरने को है कहीं न कहीं
हिरास-ओ-ख़ौफ़ का साया जो मेरे सर पर है

मैं किस की खोज में यूँ ही बिता रहा हूँ जन्म
छुपा हुआ मिरे साए में किस का पैकर है

सुना रही है हवा अपने ही सफ़र-नामे
अजीब शोर घने जंगलों के अंदर है