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दिन का लिबास-ए-दर्द था वो तो पहन चुके | शाही शायरी
din ka libas-e-dard tha wo to pahan chuke

ग़ज़ल

दिन का लिबास-ए-दर्द था वो तो पहन चुके

कामिल अख़्तर

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दिन का लिबास-ए-दर्द था वो तो पहन चुके
रात आई जाने कौन सा ग़म ओढ़ना पड़े

अब जल्द आ मिलो कि दरख़्तों के साथ साथ
कितने जनम गुज़ार चुका हूँ खड़े खड़े

अक्सर इसी ख़याल ने मायूस कर दिया
शायद तमाम उम्र यूँ ही काटनी पड़े

पूरे हुए हैं फूल से इक जिस्म के हुज़ूर
अरमाँ कुछ ऐसे भी जो लबों तक न आ सके

लम्हों के तार खींचता रहता था रात दिन
इक शख़्स ले गया मिरी सदियाँ समेट के

जीने का शौक़ ले अड़े तारों से दूर दूर
मज़बूत हाथ मौत का दरिया में फेंक दे

हम को अज़ाब-ए-दहर से मिलती नहीं नजात
तुम भी बहिश्त-ए-जिस्म को वीराना कर चले