मंज़रों की भीड़ ऐसी तो कभी देखी न थी
गाँव अच्छा था मगर उस में कोई लड़की न थी
रूह के अंदर ख़ला है ये मुझे मालूम था
खोखला है जिस्म भी इस की ख़बर पहुँची न थी
हाथ थामा है सदा के वास्ते वैसे मगर
साथ उस का छोड़ने में कुछ बुराई भी न थी
उन दिनों भी दर्द का साया मिरे हम-राह था
जब धुआँ बन कर वो मेरे ज़ेहन पर छाई न थी
जज़्ब हो जाने का क़िस्सा ख़ुद से भी मंसूब कर
भूल मेरी थी अगर तू भी कोई देवी न थी
रंग पक्का हो चला था याद आता है मगर
धूप मेरे जिस्म पर तब ठीक से भीगी न थी
ख़्वाहिशों का वो जज़ीरा भी तो आख़िर बह गया
ख़ौफ़-ओ-ख़तरा की जहाँ पर कोई आबादी न थी
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ग़ज़ल
मंज़रों की भीड़ ऐसी तो कभी देखी न थी
कामिल अख़्तर