अदब का ज़ीना मिला ज़ीस्त का क़रीना मिला
कहाँ कहाँ न तिरे ग़म से इस्तिफ़ादा हुआ
जवाज़ जाफ़री
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कभी दीवार को तरसे कभी दर को तरसे
हम हुए ख़ाना-ब-दोश ऐसे कि घर को तरसे
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फिर हुआ ऐसे कि मुझ को दर-ब-दर करने के बा'द
नाम उस बस्ती का मेरे नाम पर रक्खा गया
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ज़ेहन इस ख़ौफ़ से होने लगे बंजर कि यहाँ
अच्छी तख़्लीक़ पर कट जाते हैं मेमार के हाथ
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