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कभी दीवार को तरसे कभी दर को तरसे | शाही शायरी
kabhi diwar ko tarse kabhi dar ko tarse

ग़ज़ल

कभी दीवार को तरसे कभी दर को तरसे

जवाज़ जाफ़री

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कभी दीवार को तरसे कभी दर को तरसे
हम हुए ख़ाना-ब-दोश ऐसे कि घर को तरसे

झूट बोलूँ तो चिपक जाए ज़बाँ तालू से
झूट लिक्खूँ तो मिरा हाथ हुनर को तरसे

क़र्या-ए-नामा-बराँ अब के कहाँ जाएँ कि जब
तिरे पहलू में भी हम उस की ख़बर को तरसे

सब के सब तिश्ना-ए-तकमील हैं इस शहर के लोग
कोई दस्तार को तरसे कोई सर को तरसे

शहर-ए-बे-मेहर में ज़िंदा हैं तिरे बिन जैसे
धूप के शहर का बाशिंदा शजर को तरसे