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अदा ज़बान से हर्फ़-ए-नहीं ज़ियादा हुआ | शाही शायरी
ada zaban se harf-e-nahin ziyaada hua

ग़ज़ल

अदा ज़बान से हर्फ़-ए-नहीं ज़ियादा हुआ

जवाज़ जाफ़री

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अदा ज़बान से हर्फ़-ए-नहीं ज़ियादा हुआ
इसी पे क़त्ल मिरा सारा ख़ानवादा हुआ

तलब ने ज़ीन सजाई किरन के घोड़े पर
कभी जो सैर-ए-मह-ओ-महर का इरादा हुआ

हमीं ने जस्त भरी वक़्त के समुंदर में
हमीं से दामन-ए-अर्ज़-ओ-समा कुशादा हुआ

अदू ने लूट ली मक़्तल में जब मिरी पोशाक
तो मेरा ख़ून मिरे जिस्म का लिबादा हुआ

अदब का ज़ीना मिला ज़ीस्त का क़रीना मिला
कहाँ कहाँ न तिरे ग़म से इस्तिफ़ादा हुआ

फ़रस को दूर किया सर से ताज उतार दिया
तुम्हारे शहर में पहुँचा तो मैं पियादा हुआ

में दम-ब-ख़ुद हूँ मिरे सर पे साएबान-ए-फ़लक
बग़ैर चोब के क्यूँ-कर है ईस्तादा हुआ