अब के मैदान रहा लश्कर-ए-अग़्यार के हाथ
गिरवी उस पार पड़े थे मिरे सालार के हाथ
ज़ेहन इस ख़ौफ़ से होने लगे बंजर कि यहाँ
अच्छी तख़्लीक़ पर कट जाते हैं मेमार के हाथ
अब सर-ए-क़र्या-ए-बे-दस्त पड़ा है कश्कोल
रोज़ कट जाते थे इस शहर में दो-चार के हाथ
लूट कुछ ऐसी मची शहर का दर खुलते ही
हर तरफ़ से निकल आए दर-ओ-दीवार के हाथ
हम सर-ए-शाख़-ए-सिनाँ क़र्या-ब-क़र्या महके
हम ने इस जंग में सर जीत लिए हार के हाथ
साया-सोज़ी में तो हम लोग थे सूरज के हलीफ़
अब हदफ़ ठहरे कि जब जल गए अश्जार के हाथ

ग़ज़ल
अब के मैदान रहा लश्कर-ए-अग़्यार के हाथ
जवाज़ जाफ़री