अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
ये शहर बुलंदी से दरिया नज़र आता है
इनाम नदीम
बुझ जाएगा इक रोज़ तिरी याद का शोला
लेकिन मिरे सीने में धुआँ यूँ ही रहेगा
इनाम नदीम
दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो
अंदर से कभी देखो कैसा नज़र आता है
इनाम नदीम
एक लम्हा लौट कर आया नहीं
ये बरस भी राएगाँ रुख़्सत हुआ
इनाम नदीम
हम ठहरे रहेंगे किसी ताबीर को थामे
आँखों में कोई ख़्वाब रवाँ यूँ ही रहेगा
इनाम नदीम
जिए गरचे इसी दुनिया में हम भी
मगर दुनिया हमारी और ही थी
इनाम नदीम
जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
तो कोई दूसरा आज़ार होता
इनाम नदीम
कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
उसी गर्द में था अटा हुआ मिरे सामने
इनाम नदीम
ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर
क्या जानिए कब तक इसी हालत में रहूँगा
इनाम नदीम