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ये मंज़र बे-दर-ओ-दीवार होता | शाही शायरी
ye manzar be-dar-o-diwar hota

ग़ज़ल

ये मंज़र बे-दर-ओ-दीवार होता

इनाम नदीम

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ये मंज़र बे-दर-ओ-दीवार होता
अगर मैं ख़्वाब से बेदार होता

बहुत आसाँ था उस को याद रखना
पर अगला मरहला दुश्वार होता

सफ़र कुछ और भी मुश्किल से कटता
अगर ये रास्ता हमवार होता

अगर ये दाएरा तकमील पाता
जहान-ए-साबित-ओ-सय्यार होता

जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
तो कोई दूसरा आज़ार होता