हर रोज़ दिखाई दें सब लोग वहीं लेकिन
जब ढूँडने निकलें तो मिलता ही नहीं कोई
फ़र्रुख़ जाफ़री
हिजाब उस के मिरे बीच अगर नहीं कोई
तो क्यूँ ये फ़ासला-ए-दरमियाँ नहीं जाता
फ़र्रुख़ जाफ़री
जिस्म के अंदर जो सूरज तप रहा है
ख़ून बन जाए तो फिर ठंडा करेंगे
फ़र्रुख़ जाफ़री
कोई ठहरता नहीं यूँ तो वक़्त के आगे
मगर वो ज़ख़्म कि जिस का निशाँ नहीं जाता
फ़र्रुख़ जाफ़री
मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
दरमियाँ के फ़ासले का तय सफ़र कैसे करें
फ़र्रुख़ जाफ़री
थे उस के हाथ लहू में हमारे ग़र्क़ मगर
ज़रा भी शर्म न आई उसे मुकरते हुए
फ़र्रुख़ जाफ़री
ये और बात कि वो तिश्ना-ए-जवाब रहा
सवाल उस का मगर गूँजता फ़ज़ा में था
फ़र्रुख़ जाफ़री