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कटी पहाड़ सी शब इंतिज़ार करते हुए | शाही शायरी
kaTi pahaD si shab intizar karte hue

ग़ज़ल

कटी पहाड़ सी शब इंतिज़ार करते हुए

फ़र्रुख़ जाफ़री

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कटी पहाड़ सी शब इंतिज़ार करते हुए
हुई तमाम सहर आह-ए-सर्द भरते हुए

थे उस के हाथ लहू में हमारे ग़र्क़ मगर
ज़रा भी शर्म न आई उसे मुकरते हुए

हवा चली तो परेशाँ हुए शजर औराक़
मगर न थे वो हमारी तरह बिखरते हुए

कभी उधर से जो गुज़रें तो याद आता है ये
कि उस को देखता था उस राह से गुज़रते हुए

हमेशा सोच में डूबा हुआ वो हम को मिला
कभी तो देखते 'फ़र्रुख़' को हम उभरते हुए