दर्द उट्ठा था मिरे पहलू में
आख़िर-ए-कार जिगर तक पहुँचा
बक़ा बलूच
एक उलझन रात दिन पलती रही दिल में कि हम
किस नगर की ख़ाक थे किस दश्त में ठहरे रहे
बक़ा बलूच
गर्मी-ए-शिद्दत-ए-जज़्बात बता देता है
दिल तो भूली हुई हर बात बता देता है
बक़ा बलूच
हम ने जिन को सच्चा जाना
निकलीं वो सब बातें झूटी
बक़ा बलूच
हर कूचे में अरमानों का ख़ून हुआ
शहर के जितने रस्ते हैं सब ख़ूनीं हैं
बक़ा बलूच
जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी है फ़ानी है ये दुनिया भी
फिर भी फ़ानी दुनिया में जावेदाँ तो मैं भी हूँ जावेदाँ तो तुम भी हो
बक़ा बलूच
कैसा लम्हा आन पड़ा है
हँसता घर वीरान पड़ा है
बक़ा बलूच
लोग चले हैं सहराओं को
और नगर सुनसान पड़ा है
बक़ा बलूच
मैं किनारे पे खड़ा हूँ तो कोई बात नहीं
बहता रहता है तिरी याद का दरिया मुझ में
बक़ा बलूच