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जाने क्या सोच के घर तक पहुँचा | शाही शायरी
jaane kya soch ke ghar tak pahuncha

ग़ज़ल

जाने क्या सोच के घर तक पहुँचा

बक़ा बलूच

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जाने क्या सोच के घर तक पहुँचा
मैं कि मेराज-ए-हुनर तक पहुँचा

अपने कश्कोल में हसरत ले कर
इक गदागर तिरे दर तक पहुँचा

दर्द उट्ठा था मिरे पहलू में
आख़िर-ए-कार जिगर तक पहुँचा

इक तबाही मिरे दिल पर उतरी
इक तमाशा मिरे घर तक पहुँचा

इक दुआ मेरे लबों तक आई
इक असर उस की नज़र तक पहुँचा

जितनी आहें मिरे दिल से निकलें
या ख़ुदा उन को असर तक पहुँचा

शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ
तू मुझे मेरे शजर तक पहुँचा

हम सितारों की ख़बर लाएँगे
ये ख़बर अहल-ए-ख़बर तक पहुँचा