कैसा लम्हा आन पड़ा है
हँसता घर वीरान पड़ा है
बिस्तर पर कुछ फूल पड़े हैं
आँगन में गुल-दान पड़ा है
किरची किरची सपने सारे
दिल में इक अरमान पड़ा है
लोग चले हैं सहराओं को
और नगर सुनसान पड़ा है
इक जानिब इक नज़्म के टुकड़े
इक जानिब उनवान पड़ा है

ग़ज़ल
कैसा लम्हा आन पड़ा है
बक़ा बलूच