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अब नहीं दर्द छुपाने का क़रीना मुझ में | शाही शायरी
ab nahin dard chhupane ka qarina mujh mein

ग़ज़ल

अब नहीं दर्द छुपाने का क़रीना मुझ में

बक़ा बलूच

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अब नहीं दर्द छुपाने का क़रीना मुझ में
क्या करूँ बस गया इक शख़्स अनोखा मुझ में

उस की आँखें मुझे महसूर किए रखती हैं
वो जो इक शख़्स है मुद्दत से सफ़-आरा मुझ में

अपनी मिट्टी से रही ऐसी रिफ़ाक़त मुझ को
फैलता जाता है इक रेत का सहरा मुझ में

मेरे चेहरे पे अगर कर्ब के आसार नहीं
ये न समझो कि नहीं कोई तमन्ना मुझ में

मैं किनारे पे खड़ा हूँ तो कोई बात नहीं
बहता रहता है तिरी याद का दरिया मुझ में

डूब तो जाऊँ तिरी मद-भरी आँखों में मगर
लड़खड़ाने का नहीं हौसला इतना मुझ में

जब से इक शख़्स ने देखा है मोहब्बत से 'बक़ा'
फैलता जाता है हर रोज़ उजाला मुझ में