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अज़ीज़ क़ैसी शायरी | शाही शायरी

अज़ीज़ क़ैसी शेर

13 शेर

आह-ए-बे-असर निकली नाला ना-रसा निकला
इक ख़ुदा पे तकिया था वो भी आप का निकला

अज़ीज़ क़ैसी




अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ
था रब्त-ए-जान-ओ-दिल तो शुरूआ'त ही में था

अज़ीज़ क़ैसी




अजीब शहर है घर भी हैं रास्तों की तरह
किसे नसीब है रातों को छुप के रोना भी

अज़ीज़ क़ैसी




चल 'क़ैसी' मेले में चल क्या रोना तन्हाई का
कोई नहीं जब तेरा मेरा सब मेरे सब तेरे

अज़ीज़ क़ैसी




दिलों का ख़ूँ करो सालिम रखो गरेबाँ को
जुनूँ की रस्म ज़माना हुआ उठा दी है

अज़ीज़ क़ैसी




इक नवा-ए-रफ़्ता की बाज़गश्त थी 'क़ैसी'
दिल जिसे समझते थे दश्त-ए-बे-सदा निकला

अज़ीज़ क़ैसी




जितने थे रंग हुस्न-ए-बयाँ के बिगड़ गए
लफ़्ज़ों के बाग़ शहर की सूरत उजड़ गए

अज़ीज़ क़ैसी




जो ज़ख़्म दोस्तों ने दिए हैं वो छुप तो जाएँ
पर दुश्मनों की सम्त से पत्थर कोई तो आए

अज़ीज़ क़ैसी




कई बार दौर-ए-कसाद में गिरे मेहर-ओ-माह के दाम भी
मगर एक क़ीमत-ए-जिंस-ए-दिल जो खरी रही तो खरी रही

अज़ीज़ क़ैसी