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उलझाओ का मज़ा भी तिरी बात ही में था | शाही शायरी
uljhao ka maza bhi teri baat hi mein tha

ग़ज़ल

उलझाओ का मज़ा भी तिरी बात ही में था

अज़ीज़ क़ैसी

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उलझाओ का मज़ा भी तिरी बात ही में था
तेरा जवाब तिरे सवालात ही में था

साया किसी मकीं का भी जिस पर न पड़ सका
वो घर भी शहर-ए-दिल के मज़ाफ़ात ही में था

इल्ज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र
मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था

यारों को इंहिराफ़ का जिस पर रहा ग़ुरूर
वो रास्ता भी दश्त-ए-रिवायात ही में था

अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ
था रब्त-ए-जान-ओ-दिल तो शुरूआ'त ही में था

मुझ को जो क़त्ल कर के मनाता रहा है जश्न
वो बद-निहाद शख़्स मिरी ज़ात ही में था