अंधेरा इतना है अब शहर के मुहाफ़िज़ को 
हर एक रात कोई घर जलाना पड़ता है
अज़ीज अहमद ख़ाँ शफ़क़
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                बहुत दिनों से इधर उस को याद भी न किया 
बहुत दिनों से उधर का ख़याल क्यूँ आया
अज़ीज अहमद ख़ाँ शफ़क़
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                न जाने कौन अपाहिज बना रहा है हमें 
सफ़र में तर्क-ए-सफ़र का ख़याल क्यूँ आया
अज़ीज अहमद ख़ाँ शफ़क़
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                रात इक शख़्स बहुत याद आया 
जिस घड़ी चाँद नुमूदार हुआ
अज़ीज अहमद ख़ाँ शफ़क़
'शफ़क़' का रंग कितने वालेहाना-पन से बिखरा है 
ज़मीं ओ आसमाँ ने मिल के उनवान-ए-सहर लिक्खा
अज़ीज अहमद ख़ाँ शफ़क़
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