हमारा कोह-ए-ग़म क्या संग-ए-ख़ारा है जो कट जाता
अगर मर मर के ज़िंदा कोहकन होता तो क्या होता
अफ़सर इलाहाबादी
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ख़बर देती है याद करता है कोई
जो बाँधा है हिचकी ने तार आते आते
अफ़सर इलाहाबादी
मुझे गुम-शुदा दिल का ग़म है तो ये है
कि इस में भरी थी मोहब्बत किसी की
अफ़सर इलाहाबादी
न हो या रब ऐसी तबीअत किसी की
कि हँस हँस के देखे मुसीबत किसी की
अफ़सर इलाहाबादी
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तुम्हारे हिज्र में क्यूँ ज़िंदगी न मुश्किल हो
तुम्हीं जिगर हो तुम्हीं जान हो तुम्हीं दिल हो
अफ़सर इलाहाबादी