फ़लक उन से जो बढ़ कर बद-चलन होता तो क्या होता
जवाँ से पेश-रौ पीर-ए-कुहन होता तो क्या होता
मुसल्लम देख कर याक़ूब मुर्दे से हुए बद-तर
जो यूसुफ़ का दरीदा पैरहन होता तो क्या होता
हमारा कोह-ए-ग़म क्या संग-ए-ख़ारा है जो कट जाता
अगर मर मर के ज़िंदा कोहकन होता तो क्या होता
अता की चादर-ए-गर्द उस ने अपने मरने वालों को
हुई ख़िल्क़त की ये सूरत कफ़न होता तो क्या होता
निगह-बाँ जल गए चार आँखें होते देख कर उस से
कलीम आसा कहीं वो हम-सुख़न होता तो क्या होता
बड़ा बद-अहद है इस शोहरत-ए-ईफ़ा-ए-वादा पर
अगर मशहूर तू पैमाँ-शिकन होता तो क्या होता
मुक़द्दर में तो लिक्खी है गदाई कू-ए-जानाँ की
अगर 'अफ़सर' शहंशाह-ए-ज़मन होता तो क्या होता
ग़ज़ल
फ़लक उन से जो बढ़ कर बद-चलन होता तो क्या होता
अफ़सर इलाहाबादी