बरसते थे बादल धुआँ फैलता था अजब चार जानिब
फ़ज़ा खिल उठी तो सरापा तुम्हारा बहुत याद आया
अब्दुल हमीद
दम-ब-दम मुझ पे चला कर तलवार
एक पत्थर को जिला दी उस ने
अब्दुल हमीद
दिन गुज़रते हैं गुज़रते ही चले जाते हैं
एक लम्हा जो किसी तरह गुज़रता ही नहीं
अब्दुल हमीद
दूर बस्ती पे है धुआँ कब से
क्या जला है जिसे बुझाते नहीं
अब्दुल हमीद
एक मिश्अल थी बुझा दी उस ने
फिर अंधेरों को हवा दी उस ने
अब्दुल हमीद
फ़लक पर उड़ते जाते बादलों को देखता हूँ मैं
हवा कहती है मुझ से ये तमाशा कैसा लगता है
अब्दुल हमीद
लौट गए सब सोच के घर में कोई नहीं है
और ये हम कि अंधेरा कर के बैठ गए हैं
अब्दुल हमीद
लोगों ने बहुत चाहा अपना सा बना डालें
पर हम ने कि अपने को इंसान बहुत रक्खा
अब्दुल हमीद
पाँव रुकते ही नहीं ज़ेहन ठहरता ही नहीं
कोई नश्शा है थकन का कि उतरता ही नहीं
अब्दुल हमीद