आज भी 'प्रेम' के और 'कृष्ण' के अफ़्साने हैं
आज भी वक़्त की जम्हूरी ज़बाँ है उर्दू
अता आबिदी
वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का
रची-बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुश्बू
बशीर बद्र
मेरा हर शेर है इक राज़-ए-हक़ीक़त 'बेख़ुद'
मैं हूँ उर्दू का 'नज़ीरी' मुझे तू क्या समझा
बेख़ुद देहलवी
नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
दाग़ देहलवी
उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है
दाग़ देहलवी
शुस्ता ज़बाँ शगुफ़्ता बयाँ होंठ गुल-फ़िशाँ
सारी हैं तुझ में ख़ूबियाँ उर्दू ज़बान की
फ़रहत एहसास
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी