तुम शराब पी कर भी होश-मंद रहते हो
जाने क्यूँ मुझे ऐसी मय-कशी नहीं आई
सलाम मछली शहरी
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बे-पिए शैख़ फ़रिश्ता था मगर
पी के इंसान हुआ जाता है
शकील बदायुनी
रिंद-ए-ख़राब-नोश की बे-अदबी तो देखिए
निय्यत-ए-मय-कशी न की हाथ में जाम ले लिया
शकील बदायुनी
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तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
इतनी पी है कि पी नहीं जाती
शकील बदायुनी
ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
ख़ुदा से जब नहीं चोरी तो फिर बंदे से क्या चोरी
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़