सरहद-ए-फ़ना तक भी तीरगी नहीं आई
यूँ भी रास अँधेरों की ज़िंदगी नहीं आई
तुम शराब पी कर भी होश-मंद रहते हो
जाने क्यूँ मुझे ऐसी मय-कशी नहीं आई
जिस की भी तबाही हो कुछ असर तो रखती है
आज मेरी हालत पर क्यूँ हँसी नहीं आई
और भी दरख़्शाँ हो ऐ मिरे नए सूरज
अब भी मेरे आँगन में रौशनी नहीं आई
रहरवान-ए-दानिश की ज़िंदगी बताती है
काम किन मनाज़िल में आगही नहीं आई
लोग चार ही दिन में बन गए 'सलाम' ऐ दिल
और ख़ुद मुझे अब तक शाएरी नहीं आई
ग़ज़ल
सरहद-ए-फ़ना तक भी तीरगी नहीं आई
सलाम मछली शहरी