मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
आई है शीशा-ओ-साग़र की तलबगार घटा
आग़ा अकबराबादी
मय-कशी के भी कुछ आदाब बरतना सीखो
हाथ में अपने अगर जाम लिया है तुम ने
आल-ए-अहमद सूरूर
मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत
कोई ज़ोहरा-जबीं पीने पे जब मजबूर करता है
अब्दुल हमीद अदम
वो मिले भी तो इक झिझक सी रही
काश थोड़ी सी हम पिए होते
अब्दुल हमीद अदम
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
मैं कैसे बिन पिए ले लूँ ख़ुदा का नाम ऐ साक़ी
अब्दुल हमीद अदम
पी के जीते हैं जी के पीते हैं
हम को रग़बत है ऐसे जीने से
अल्ताफ़ मशहदी
ख़ुश्क बातों में कहाँ है शैख़ कैफ़-ए-ज़िंदगी
वो तो पी कर ही मिलेगा जो मज़ा पीने में है
o priest where is the pleasure in this world when dry and sere
tis only when one drinks will then the joy truly appea
अर्श मलसियानी