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कौन उतरा नज़र के ज़ीने से | शाही शायरी
kaun utra nazar ke zine se

ग़ज़ल

कौन उतरा नज़र के ज़ीने से

अल्ताफ़ मशहदी

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कौन उतरा नज़र के ज़ीने से
महफ़िल-ए-दिल सजी क़रीने से

शैख़-साहिब मुझे अक़ीदत है
गुनगुनाते हुए महीने से

मय को गुल-रंग कर दिया किस ने
ख़ून ले कर कली के सीने से

कोई साहिल न नाख़ुदा अपना
हम तो मानूस हैं सफ़ीने से

किस का एजाज़ है कि रिंदों को
चैन मिलता है आग पीने से

पी के जीते हैं जी के पीते हैं
हम को रग़बत है ऐसे जीने से

मय कि तक़्दीस का जवाब कहाँ
दाग़ धुलते हैं दिल के पीने से

हाए 'अलताफ़' वो उरूस-ए-बहार
झाँकती है जो आबगीने से