उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
जौन एलिया
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उन लबों ने न की मसीहाई
हम ने सौ सौ तरह से मर देखा
ख़्वाजा मीर 'दर्द'
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तुझ सा कोई जहान में नाज़ुक-बदन कहाँ
ये पंखुड़ी से होंट ये गुल सा बदन कहाँ
लाला माधव राम जौहर
बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई
मैं इस बहार में ये राख भी उड़ा दूँगा
साक़ी फ़ारुक़ी