हम ने घर की सलामती के लिए
ख़ुद को घर से निकाल रक्खा है
अज़हर अदीब
दर्द-ए-हिजरत के सताए हुए लोगों को कहीं
साया-ए-दर भी नज़र आए तो घर लगता है
बख़्श लाइलपूरी
कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
किसी की आँख में रह कर सँवर गए होते
बशीर बद्र
मेरी क़िस्मत है ये आवारा-ख़िरामी 'साजिद'
दश्त को राह निकलती है न घर आता है
ग़ुलाम हुसैन साजिद
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
तमाम ख़ाना-ब-दोशों में मुश्तरक है ये बात
सब अपने अपने घरों को पलट के देखते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़