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उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं | शाही शायरी
umid-o-bim ke mehwar se haT ke dekhte hain

ग़ज़ल

उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं
ज़रा सी देर को दुनिया से कट के देखते हैं

बिखर चुके हैं बहुत बाग़ ओ दश्त ओ दरिया में
अब अपने हुजरा-ए-जाँ में सिमट के देखते हैं

तमाम ख़ाना-ब-दोशों में मुश्तरक है ये बात
सब अपने अपने घरों को पलट के देखते हैं

फिर इस के बा'द जो होना है हो रहे सर-ए-दस्त
बिसात-ए-आफ़ियत-ए-जाँ उलट के देखते हैं

वही है ख़्वाब जिसे मिल के सब ने देखा था
अब अपने अपने क़बीलों में बट के देखते हैं

सुना ये है कि सुबुक हो चली है क़ीमत-ए-हर्फ़
सो हम भी अब क़द-ओ-क़ामत में घट के देखते हैं