हो गया आइना-ए-हाल भी गर्द-आलूदा
गोद में लाशा-ए-माज़ी को लिए बैठा हूँ
सिराज लखनवी
इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
बे-रहम अँधेरा है शमएँ हैं न परवाने
सिराज लखनवी
इस दिल में तो ख़िज़ाँ की हवा तक नहीं लगी
इस फूल को तबाह किया है बहार ने
सिराज लखनवी
इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम
उट्ठे तिरी महफ़िल से तो जाएँगे किधर हम
सिराज लखनवी
इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम
उट्ठे तिरी महफ़िल से तो जाएँगे किधर हम
सिराज लखनवी
इश्क़ का बंदा भी हूँ काफ़िर भी हूँ मोमिन भी हूँ
आप का दिल जो गवाही दे वही कह लीजिए
सिराज लखनवी
जान सी शय की मुझे इश्क़ में कुछ क़द्र नहीं
ज़िंदगी जैसे कहीं मैं ने पड़ी पाई है
सिराज लखनवी